सालों से जैसे जिया नहीं,
जी भर के जीने को जी चाहता है!

दिल्ली एनसीआर
हसरत की पोर-पोर खुली रह गयी हो जैसे,
उनके प्यार की सतरंगी बारिश में भीग जाने को जी चाहता है!
खुल के कभी ना नाच सका मन मयूरा,
बूंदों संग अठखेलियों को जी चाहता है!
हर सांस ऐसी हो कि तन मन महक जाये,
फूलों की बगिया में खिलखिलाने को जी चाहता है!
चुरा के रस फूलों का, मिला लूं अपनी शोखी में,
सम्हालो मत मुझे अभी कि झूम जाने को जी चाहता है!
विहग कुल से पूछूँ कि उनमुक्तता क्या चीज है,
खुले आसमान में विचरने को जी चाहता है!
छीन लूँ झरनो से संगीत उनका,
कि आज फिर गुनगुनाने को जी चाहता है!
कैद कर लूँ आँखों में शर्बती शाम की अंगड़ाई,
कि प्यार में डूब जाने को जी चाहता है!
रात को चन्दा जब बिखेरे अपनी चांदनी,
हद से गुज़र जाने को जी चाहता है!
आज तक ना सुध रही कभी अपनी,
कि खुद को गले लगाने को जी चाहता है!
( समस्त नारियों को समर्पित)
****