इस दुनिया में सब कुछ परिवर्तनशील है केवल एक अटल सत्य को छोड़ कर। वह सत्य है मृत्यु। मृत्यु अपनी हो या अपनों की, होती यह दुखदायी और डरावनी ही है। पर क्या करें? यह अटल सत्य जो है। तो क्यों न इसका स्वागत उसी तरह करें जैसा हम जीवन के शुरुआत यानि जन्म का करते हैं! लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि जीवन का शुरुआत जीवन के अंत की प्रतीक्षा करने के लिए हुआ है। जीवन के शुरुआत और अंत पर तो हमारा नियंत्रण है नहीं। हमारा नियंत्रण है तो केवल जीवन के दौरान का जो समय है, उस पर। तो क्यों न इस समय को ऐसे जीएँ जो हमे कुछ सार्थक करने की संतुष्टि एवं खुशी दे।
जीवन जश्न क्यों?
कहते हैं यह जीवन तो मौत की सौगात है अर्थात हमें जो समय मिला है, वह तभी तक हमारी है, जब तक मृत्यु उसे हमसे ले नहीं लेती है। यही तो वह समय है जब हम बहुत कुछ कर सकते हैं- अच्छा या बुरा। जन्म से पहले और मृत्यु के बाद के समय का तो हमे पता ही नहीं है। तो सौगात में मिले इस समय का, इस ऐसे समय का जिसका उपयोग करने की क्षमता हम में है- क्यों न जश्न के रूप में मनाएँ? पर हम जश्न के लिए किसी अवसर की प्रतीक्षा क्यों करें?

हम जीवित हैं, जबकि प्रतिदिन कितने ही लोग दुनिया से जा रहें हैं, हम में ऐसी बहुत-सी क्षमता है जिसका कई अन्य लोगों के पास अभाव है- तो क्या ये अपने आप में पर्याप्त अवसर नहीं है जश्न मनाने का? हम परीक्षा में पास होने, नौकरी मिलने, शादी, व्यापार, कोई संपत्ति खरीदने इत्यादि छोटी खुशियों पर जश्न मनाते हैं, तो उस उपलब्धि यानि जीवित होने का जश्न क्यों न मनाएँ जिस पर यह सब उपलब्धि टिकी हुई है।
यह सारहीन है कि जिंदगी अच्छी है या बुरी। हो सकता है हम शरीर से बहुत लाचार हों, बहुत कष्ट में हों, यह भी हो सकता है हमारे पास संसाधनों की कमी हो या हम मानसिक संताप में हों, पर फिर भी हम जीवित हैं, तो बहुत कुछ कर सकने की क्षमता बनी हुई होती हैं। इसीलिए कहा गया है ‘जब तक सांस है तब तक आस है।’
जश्न मनाएँ कैसे?
पर हम जश्न मनाएँ कैसे? हम हर दिन पार्टी तो कर नहीं सकते हैं? समय या साधन भी उतने नहीं हैं। लेकिन जश्न में क्या होता है? उसकी जो विशेषताएँ हैं उसे हम दैनिक जीवन में उतार सकते हैं क्या? वास्तव में किसी भी जश्न की ये विशेषताएँ होतीं हैं:
1. कोई भी जश्न अकेले नहीं मनाया जाता है। परिवार जन और मित्र जन इकट्ठे होते हैं। इसलिए जीवन को जश्न बनाने के लिए इष्ट-मित्रों के लिए समय निकालना जरूरी है। यह किसी विशेष अवसर पर एक औपचारिकता के लिए नहीं बल्कि जीवन के सामान्य भाग के रूप में सहज होना चाहिए।
2. जश्न की दूसरी विशेषता होती है कि इसमें हम अपने को सजा-संवार कर रखते हैं। हर उम्र का अपना अलग सौन्दर्य होता है। बच्चों का सौन्दर्य मासूमियत लिए हुए, युवा का सौन्दर्य जोश लिए हुए, प्रौढ़ का सौन्दर्य ज़िम्मेदारी लिए हुए तो वृद्ध का सौन्दर्य गरिमा लिए हुए होता है। शक्ल-सूरत तो हमारे हाथ में नहीं है। इसलिए प्रकृति ने हमे जैसा बनाया है, और हमारी जो आर्थिक स्थिति है, उस के अनुरूप हमेशा अपने को सजा-संवार कर रखें। जब हमें लगता है कि हम अच्छे लग रहें हैं तो इससे हमारा आत्मविश्वास बढ़ता है, लोगों से मिलने-जुलने का हमारा मन करता है, हमें उत्साह महसूस होता है।
3. जश्न में हम अपने को ही नहीं, अपने घर और आसपास को भी संजाते हैं ताकि वह खूबसूरत दिखें। आसपास अगर साफ और सुंदर हो तो अपने आप एक सकारात्मकता का अनुभव होता है।
4. जश्न की तीसरी विशेषता होती है हम उस दिन अच्छा खाते-पीते हैं। अपने स्वास्थ्य, रुचि और आर्थिक स्थिति का ध्यान रखते हुए हम पौष्टिक, ताजा और सुस्वादु आहार अगर लेते हैं तो इससे हमारे अंदर एक सकारात्मकता का संचार होता है।
अगर कोई चीज स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक नहीं है लेकिन हमारी रुचि उसमें है तो वैसे भोजन को कभी-कभार ही लेना चाहिए। अगर हमारे रुचि का भोजन डॉक्टर हमें मना कर दे, जैसा कि अक्सर उम्र बढ़ने पर होता है, तो इससे भी अपने अंदर हम नकारात्मकता नहीं आने दें। सोचें हमने कितने दिनों तक बहुत सारा स्वाद लिया है, और आज भी बहुत सारे लोग हैं जो हम से भी बुरी स्थिति में हैं।
मुझे 84 वर्ष के एक बुजुर्ग की याद आ रही है जिन्हें किडनी की समस्या थी। डॉक्टर ने उन्हें बहुत कुछ खाने से मना कर दिया था। वह जब किसी को खाते देखते हो बुदबुदाते रहते थे कि उन्हें ऐसी बीमारी क्यों हो गई। एक दिन वे किसी रेस्टोरेन्ट में गए। वहाँ भी इसी तरह परेशान थे। उनके साथ एक ऐसा व्यक्ति था जो युवा और स्वस्थ होने के बावजूद धार्मिक विश्वासों के कारण बहुत से चीजों को खाने से परहेज कर रहा था। उसने चूंकि स्वेच्छा से उन भोजन को छोड़ा था, उसे इसके लिए बिलकुल ही अफसोस नहीं था। 83 वर्षों तक वह बुजुर्ग इतने स्वस्थ रहे कि अपनी पसंद से खा पी सकते थे। जबकि बहुत से लोग तो 35-40 के होते-होते डाइबिटीज़, बीपी आदि बीमारियों के कारण मनपसंद चीजें नहीं खा सकते हैं।
5. जश्न की चौथी विशेषता होती है कि उसमें हम तरह-तरह के शारीरिक और मानसिक कार्यक्रम करते हैं। तरह-तरह के शारीरिक और मानसिक खेलकूद, तरह-तरह की प्रतियोगिताएँ, रंगोली बनाना, नाचना-गाना, अंत्याक्षरी, इत्यादि इसमें होते हैं। तो क्यों न अपनी क्षमता के अनुसार ऐसे कार्य करने के अवसर ढूंढें?

अगर यह पाँच काम हम प्रतिदिन करें तो हमें प्रसन्नता और सकारात्मक ऊर्जा का अनुभव होगा। जब कभी अवसर मिले तो कहीं घूमने निकल जाएँ, पिकनिक यानि साथ खाने और बनाने का कोई कार्यक्रम रखें, परिवार जनों और दोस्तों के साथ मिल बैठे, कुछ खेलें, कुछ गाएँ।
पर अकेले स्वयं को मिली सारी खुशियाँ अधूरी होती है। इसलिए जितना संभव हो खुशियाँ बांटे और एक-दूसरे का सहयोग करें। जीवन ऐसा हो तो यकीन मानिए जीवन स्वयं में एक जश्न हो जाएगा, हमें जश्न के लिए कोई अवसर तलाशना नहीं पड़ेगा।
प्रकृति भी नव जीवन का जश्न मानती है
महाभारत का एक बहुत ही प्रसिद्ध प्रसंग है युधिष्ठिर और यक्ष का संवाद। दोनों में हुए बहुत से प्रश्नोत्तर में एक प्रश्न यह भी था “अधिक आयु के क्या लाभ और क्या हानी हैं?” उत्तर दिया जाता है कि अधिक आयु से हमें अच्छे कार्य करने के लिए अधिक समय प्राप्त होता है। पर अत्यधिक आयु से नुकसान यह होता है कि हमें अपने प्रिय लोगों के अपने सामने दुनिया से जाते हुए देखना पड़ता है और अंत में हम अकेले हो जाते हैं।
सच में दुनिया का सबसे बड़ा दुख होता है अपने प्रिय व्यक्ति को अपने आंखों के सामने इस दुनिया से जाते हुए देखना। इसीलिए हमारी संस्कृति में “चिरंजीवी भव:” “यशस्वी भवः” का आशीर्वाद दिया जाता है। इसलिए हमारी संस्कृति जीवन का जश्न मनाने की है। खेत में नए अन्न आए, मौसम गर्मी की झुलसाहट को छोड़ कर नव पत्ते का शृंगार करे, या सर्दी के ठिठुरन को छोड़ कर वसंत का स्वागत करें, इन सब को नव जीवन का संदेश मान कर हम जश्न मनाते हैं। तो फिर मानव जीवन का जश्न क्यों न मनाएँ?
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