कुछ दिन पहले कुछ दोस्तों के साथ एक वृद्धाश्रम जाने का अवसर मिला। यह एक निःशुल्क वृद्धाश्रम था जहां समान्यतः ऐसे लोग थे जिनका या तो परिवार नहीं था, या अगर था भी तो उनसे संबंध नहीं रखना चाहता था। हमलोगों में उनके प्रति सहानुभूति उत्पन्न हुई। सोचने लगी इनसे बात किया जाय और पूछा जाय वे अपने घर में रहने के दिन को कैसे याद करते हैं और वहाँ के किन चीजों को वे यहाँ पाना चाहते हैं।
हमें उम्मीद थी कि वे कोई ऐसी बात कहेंगे जैसा कि “थ्री रिग्रेट ऑफ माइ लाइफ” जैसे किताबों में है। ये अपने किसी को याद करते होंगे उनके साथ रहना चाहते होंगे! शायद इनके परिवार वाले ‘बागवान’ फिल्म के बच्चों की तरह संवेदनशून्य होंगे! शायद उनके बच्चे ‘फिल्मी विलेन’ जैसे होंगे जो अपने माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते होंगे!
हम उनसे बड़ी सहानुभूति और अपनेपन से बातें करने लगे। इस पर के वृद्ध बहुत ज़ोर से रोने लगे। उन्होने बताया कि उनके बच्चों ने उन्हें मारपीट कर घर से निकाल दिया था। वे दूसरे राज्य के किसी ग्रामीण क्षेत्र से आए थे। हम आश्चर्य में थे कि क्या गांवों में भी शहरों की ये बीमारी फैल रही है?

हमने उनसे पूछा कि “वे घर जाना चाहते थे” तो उन्होने कहा कि वे केवल यहाँ (वृद्धाश्रम) से निकलना चाहते थे। “यहाँ आपको क्या दिक्कत है?” उन वृद्ध ने रोते हुए बताया कि उन्हें यहाँ “बीड़ी नहीं मिलती।“ वह यहाँ अपने परिवार और समाज से अधिक ‘बीड़ी’ को याद कर रहे थे और उसके लिए रो रहे थे। पास ही पड़े दूसरे वृद्ध से भी हमने पूछा कि उन्हें कुछ चाहिए तो हम उपलब्ध करा दें। उन्होने हमसे मांगा “स्वागत”। पता चला ‘स्वागत’ गुटखा होता है।
वहाँ रहने वाले लोगों से बात करके हमें पता चला कि लगभग 90 प्रतिशत लोगों के यहाँ पहुँचने के तीन बड़े कारण थे:
नशे की आदत
वहाँ रहने वाले अधिकांश लोग किसी-न-किसी तरह के नशे के आदी थे। शराब, बीड़ी, सिगरेट, गुटखा, आदि कोई भी रूप हो, लेकिन नशा के लत के किसी-न-किसी रूप के वे आदी थे। जब वे युवा थे तो अपने कमाई से या परिवार से पैसे छीन कर अपनी जरूरत पूरी कर लेते थे। लेकिन जब वे उम्र या स्वास्थ्य कारणों से कमाने में असमर्थ हो गए तो परिवार वालों से, बच्चों से पैसे मांगते। बच्चे अगर मना करते तो घर में कलह करते थे। साधारणतः घर के वातावरण के कारण उनके बच्चे भी नशे के आदी थे। वे अब अपनी लत पूरी करते या अपने पिता की! शुरू से ही उनके घर की हालत बहुत अच्छी नहीं होती थी, नशा, गाली-गलौज, उनके माँ-बाप के प्रति उनके व्यवहार आदि कारणों से घर का जो वातावरण पहले से ही विषाक्त होता था, वह अशक्त हो जाने पर और अधिक बिगड़ गया। अंततः उन्होने या तो स्वयं ही घर छोड़ दिया या फिर बच्चों ने मारपीट कर निकाल दिया।
क्रोधी स्वभाव
वहाँ रहने वालों में से कई के बच्चे मिलने आते थे कभी-कभी। उन बच्चों और स्वयं वृद्ध की बातों से यह ज्ञात होता था कि ज़्यादातर वृद्ध बहुत क्रोधी और चिड़चिड़े स्वभाव के थे। एक तो इतने अधिक क्रोधी थे कि एक बार किसी छोटी बातों से उन्हें इतना गुस्सा आ गया कि उन्होने गैस सिलेन्डर खोल कर आग लगा दिया। उस समय उनके घर में उनके स्वयं के पिता और उनके बेटे के बच्चे भी थे। बड़ी मुश्किल से सबकी जान बच सकी थी। इस घटना के बाद घर वालों ने उन्हें घर से निकाल दिया था। लेकिन यहाँ भी उनका गुस्सा और गाली-गलौज जारी था।
ये ऐसे नहीं थे जो पहले शांत स्वभाव के थे लेकिन वृद्ध होने पर गुस्सैल या चिड़चिड़े हो गए हो अथवा उन्हें कोई मानसिक बीमारी हो गई हो, बल्कि वे युवावस्था से ही गुस्सैल थे। उनके घर के लोग भी उनसे परेशान रहते थे। वे कभी-कभी अपनी कमी को स्वीकार करते भी थे लेकिन सुधारने के बदले अधिकांशतः गुस्से को जायज ठहराने के प्रयास करते।
पारवारिक कलह
तीसरी बात जो वहाँ रहने वाले अधिकांश बुजुर्गों में सामान्य रूप से पाया गया, उनके परिवार का वातावरण सौहर्द्र्पूर्ण नहीं था। वे बिना मेहनत संपत्ति चाहते थे। इसलिए उनके पिता या भाई-बहनों से उनकी नहीं बनती थी। धीरे-धीरे उन्होने स्वयं सभी से संबंध तोड़ लिया था। उनका कहना था कि उनके पिता या भाई-बहन अच्छे नहीं थे। जब नजदीक रिश्तेदारों से नहीं बनती थी तो चाचा, ताऊ, बुआ, मामा, मौसी इत्यादि से कैसे बनता। उन्होने या उनके बच्चों ने रिश्तों के मिठास को कभी अनुभव नहीं किया था। वे अपने दृष्टिकोण को ही परम सत्य मान कर सबसे अलग हो कर बैठे थे।
यह सच है कि सभी के लिए एक ही निष्कर्ष सही नहीं हो सकता है। लेकिन फिर भी अगर वृद्धाश्रमों को एक सामान्य आधार मान लें तो हम समाज को तीन वर्गों में बाँट सकते हैं। तीनों में रहने वालों की समस्याएँ तीन तरह की होती हैं।
सशुल्क वृद्धाश्रम
साधारण शुल्क से लेकर मंहगें ‘सीनियर लिविंग’ तक इनमें शामिल होते हैं। यहाँ ऐसे लोग रहते हैं जिनके पास पैसों की कमी नहीं होती। ये साधारणतः पढे-लिखे होते हैं। इनके बच्चे भी बहुत पढे-लिखे और अपने व्यवसाय में व्यस्त रहते हैं। घर में न तो कोई देखभाल करने वाला होता है और न ही बात करने वाला। नौकर भी इतने भरोसेमंद नहीं मिलते जिनके सहारे वे अकेले घर में रह सके। ऐसे में कभी-कभी स्वयं वृद्ध ऐसे ‘ओल्ड एज होम’ या ‘सीनियर लिविंग’ में स्वेच्छा से रहना चाहते हों ताकि उन्हें अपने हमउम्र लोगों का साथ तो मिल सके। उनके वहाँ रहने से उनके बच्चे भी उनकी सुरक्षा और सुविधा के लिए निश्चिंत हो जाते हैं। इन्हें किसी चीज की कमी तो नहीं होती लेकिन कहीं-न-कहीं अकेलापन रहता हैं इनमें।
निःशुल्क वृद्धाश्रम
इनमें सरकारी या गैर सरकारी दोनों शामिल होते हैं। अलग-अलग धार्मिक संगठन या एनजीओ भी इन्हें चलाते हैं। इनमें रहने वाले समान्यतः निम्न मध्यमवर्ग के होते हैं। इनके वहाँ रहने का कारण पारिवारिक कलह और इनकी आर्थिक दुर्बलता होती है।
अनाथाश्रम
बहुत सारे आश्रम सड़क से या हॉस्पिटल के आसपास से उठा कर लोगों को लाते हैं। ये ऐसे होते हैं जो किन्हीं मानसिक या शारीरिक बीमारी के कारण अपनी यदाश्त या सामान्य काम करने की क्षमता खो चुके होते हैं, या फिर इनके इलाज का खर्चा इतना हो जाता है जो इनके परिवार द्वारा उठाना संभव नहीं होता है। कुछ तो अलझामर, शिजोफ़्रेनिया जैसे बीमारी के कारण अपने घर नहीं पहुँच पाते और सड़कों पर रहने के लिए मजबूर होते हैं। हो सकता है उनके परिवार वाले उन्हें ढूंढ रहे हों लेकिन वे ढूंढ नहीं पाते। बहुत सारे परिवार वाले उनकी देखभाल करने में असमर्थ होते हैं या आर्थिक रूप से सक्षम नहीं होते हैं, इसलिए हॉस्पिटल में या उसके आसपास उन्हें छोड़ कर चले जाते हैं।
बहुत से वृद्ध तो ऐसे होते हैं तो यद्यपि किसी आश्रम में नहीं जाते हैं लेकिन उनके लिए उनका घर ही किसी आश्रम जैसा या कभी-कभी उससे भी बुरा हो जाता है।
क्या है समाधान?
स्पष्टतः वृद्ध लोग की समस्या के लिए उनके बच्चे और परिवार ही नहीं बल्कि वे स्वयं भी बहुत हद तक जिम्मेदार होते हैं। तो क्यों न हम एक गरिमामय वृद्धावस्था के लिए युवावस्था से ही तैयारी कर दें। यह बहुत मुश्किल भी नहीं है। एक गरिमामय वृद्धावस्था के पाँच मंत्र हैं, जिन्हें हम सबको अपना लेना चाहिए भले ही हमारी कोई भी उम्र हो। ये मंत्र हैं:
1. अच्छा पारिवारिक वातावरण
अगर थोड़ी हानि सह कर, थोड़ा क्षणिक अपमान सह कर भी परिवार में स्नेह और सौहार्द कायम रह सके तो वह जरूर करें। यह नहीं देखें कि दूसरे क्या कर रहे हैं। अगर आपका अपने पिता से अच्छा संबंध नहीं है क्योंकि आपके पिता ने आप से अधिक आपके भाई के लिए किया है तो यकीन मानिए आपके बेटे से भी आपका अच्छा संबंध नहीं रह सकेगा। समय आने पर आपका बच्चा भी यही सोचेगा। अगर आप अपनी पत्नी या पति के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करेंगे, उन्हें आदर नहीं देंगे तो आपके बच्चे उन्हें तो आदर नहीं ही देंगे, वे आपको भी आदर नहीं देंगे। मनोविज्ञान कहता है कि जिस घर में प्रेम और शांति का वातावरण होता है, वहाँ के बच्चे अधिक संवेदनशील और मानवीय गुणों से सम्पन्न होते हैं।
घर में नकारात्मक बातें और व्यवहार न रखें। भले ही ये नकारात्मक बातें आप अपने पड़ोसी, मित्र या किसी दूर के रिश्तेदार के लिए ही क्यों न कर रहे हों।
2. नशे के दूरी
कोई भी नशा बुरा नहीं होता जब तक कि आपको उसकी लत नहीं लग जाए। और ये लत कब लग जाती है, यह उस व्यक्ति को भी पता नहीं चलता है जो इसका शिकार होता है। अक्सर हम शराब पीने वालों से सुनते हैं “मैं तो ओकेजनली कभी-कभी ले लेता हूँ, इसकी आदत नहीं है मुझे” लेकिन यह ‘कभी-कभी’ कब ‘अक्सर’ और फिर ‘रेगुलर’ बन जाता है इसका पता उसे भी नहीं चलता है। कुछ लोग कहते हैं मैं तो ‘वाइन’ या ‘वोदका’ लेता हूँ या हुक्का लेता हूँ जो खराबी नहीं करता। लेकिन रूप कोई भी हो, लत कम मात्रा के लिए हो या ज्यादा के लिए, इसका परिणाम बुरा ही होगा। यह आपके साथ ही आपके परिवार वालों के लिए भी बुरा होता है। संबंधियों और समाज में आपका सम्मान कम करता है। स्वास्थ्य तो लेता ही है आपका।
3. अकेले और व्यस्त रहने की आदत डालें
यद्यपि सामाजिक और पारिवारिक होना अच्छा ही नहीं बल्कि जरूरी है। लेकिन साथ ही अकेले रहने और कुछ न कुछ रचनात्मक काम में व्यस्त करने की आदत डालें। कोई-न-कोई रचनात्मक शौक जरूर रखें। यह बागवानी हो सकता है, लिखना-पढ़ना, चित्रकारी, गायन या फिर और कोई कला हो सकती है। पर ऐसा जरूर हो कि जब आप अपने शौक के साथ हो तो भूल जाएँ कि आपके साथ या आपके पास कौन या क्या है।
4. कुछ मित्र जरूर रखें
कोई न कोई मित्र रखें जिससे बातें करते हुए आपको यह नहीं सोचना पड़े कि क्या कहना है और क्या छुपाना है। इनकी संख्या कुछ भी हो लेकिन गुणवत्ता जरूर हो इस रिश्ते में। ऐसे मित्र आपके पड़ोसी, सहकर्मी, संबंधी, बच्चे या कोई अन्य हो सकता है। लेकिन मित्रता उनसे ही रखे जो सकारात्मक विचार रखते हों और उनसे मिलकर आप अधिक ऊर्जावान महसूस करते हों।
5. अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखें
सारी खुशियाँ और सुख निरर्थक हो जाता है अगर आप स्वस्थ्य नहीं हों। एक स्वस्थ जीवन के लिए नियमित दिनचर्या, संतुलित भोजन, व्यायाम और सैर, शारीरिक और मानसिक रूप से हमेशा सक्रिय रहना, सकारात्मक सोच तथा नशे से दूरी आवश्यक है। इन उपायों के बावजूद भी हो सकता है, आप बीमार एवं कमजोर हों। तो इसे जीवन का एक सामान्य स्थिति मान कर स्वीकार करें। बीमारी को अपनी सोच पर हावी न होने दें।
6. आर्थिक आत्म निर्भरता
अपने जीवन की मौलिक जरूरत के लिए जब हमें किसी के सामने हाथ फैलाना पड़े, विशेष कर तब जब हमने सारा जीवन अपने हिसाब से खर्च किया हो, तो यह स्थिति तन के साथ-साथ मन को भी तोड़ देता है। इसलिए यह कोशिश हो कि एक छोटा-सा ही सही, पर अपना घर हो, और छोटी-सी ही सही, एक आय का स्रोत हो। संपत्ति बच्चों को बेशक दे दे, पर कुछ हिस्सा अपने पास भी रखे।
पर इससे भी जरूरी यह है कि बच्चों को कभी ऐसे संस्कार न दें जिससे उन्हें लगे व्यक्ति और सम्बन्धों से बड़ा संपत्ति होता है। अगर आप भाई, पिता या पड़ोसी से झगड़ कर अपने बच्चों के लिए बेईमानी से संपत्ति इकट्ठी करेंगे, तो भले ही आप ये सब कुछ बच्चों के लिए ही करेंगे लेकिन बच्चों को संस्कार तो यही मिलेगा न कि संपत्ति सम्बन्धों से बड़ा होता है। ऐसे में बच्चा आपकी संपत्ति से प्रेम करेगा आप से नहीं। आप तो उसके लिए केवल संपत्ति पाने के माध्यम होंगे।
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