नुक्कड़ से मुड़ने पर जो पहला बड़ा सा सफेद घर है वह डॉक्टर विश्वरूप सरकार का ही है। घर क्या बंगला है यह। शहर के सबसे मंहगे इलाके में इतना बड़ा बंगला, वह भी बड़े से गार्डन के साथ। उस इलाके के लिए तो यह लैंडमार्क का भी काम करता है। पर दीवारें इतनी ऊंची है कि अंदर का ज्यादा दिखता नहीं है। बाहर से केवल दीवार पर झुके हुए वोगनवेलिया के फूल और बड़े से गेट पर करीने के लटकते हुए मधुमालती के फूल ही दिखते हैं। साथ ही गेट के बगल में काले पत्थर पर गोल्डन रंग से लिखा गया नेमप्लेट “अभिलाष भवन” दिखता है। अभिलाष भवन के नीचे डॉ विश्वरूप सरकार और डॉ अभिलाष सरकार का नाम लिखा है।
उधर से गुजरते हुए उस घर की भव्यता पर हमेशा मेरा ध्यान चला ही जाता था। पर आज से पहले घर के अंदर मेरा केवल एक बार जाना हुआ जब डॉ विश्वरूप सरकार ने अपने शादी की 50वीं वर्षगांठ यानी गोल्डन जुबली पार्टी में हॉस्पिटल के सभी डॉक्टर को बुलाया था। शहर ही नहीं बल्कि देश के सबसे जाने माने न्यूरो सर्जन में से एक थे डॉक्टर विश्वरूप सरकार। मुझे जब उनके टीम में न्यूरो सर्जन के रूप में जगह मिली तो मुझे अपने पर गर्व होने लगा था। 6 वर्ष तक उनकी टीम में सर्जन के रूप में काम करने के बाद मुझे उस बंगले को अंदर से देखने का मौका मिला था। इस पार्टी में मेडिकल क्षेत्र से जुड़े बड़े बड़े लोग और डॉक्टर आने वाले थे। लेकिन मुझे उन सबसे मिलने की इतनी खुशी नहीं थी जितनी उस घर को अंदर से देखने की। वह घर, जो अब मेरा ड्रीम घर बन चुका था। मैं और मेरी पत्नी जब कभी अपने भविष्य की योजना बनाते तब अपनी सफलता का मापदंड यही बनाते कि इतना बड़ा डॉक्टर बनना है ताकि विश्वरूप सरकार जैसा घर बना सकें।

मैं और मेरी पत्नी निर्धारित समय पर पार्टी में पहुंचे। हॉल हो या छत, या फिर बाहर का लॉन। हर एक जगह अभिजात्य अभिरुचि की सजावट। हर एक चीज बारीकी से खूबसूरत। हॉस्पिटल में हमेशा गंभीर रहने वाले डॉ विश्वरूप सरकार यहां दूसरे अवतार में थे। हल्के फुल्के मूड में हंसी मजाक करने वाले डॉ विश्वरूप। पर, इस हंसी खुशी में भी एक कमी थी। डॉ विश्वरूप सरकार के बेटे डॉ अभिलाष सरकार की। लेकिन यह भी सच था कि वह वहां नहीं होकर भी हर जगह थे। ड्राइंग रूम से स्टडी रूम तक हर जगह उसकी बचपन से लेकर अभी तक के कई फोटो लगे थे। कुछ छोटे तो कुछ बड़े पोस्टर साइज़ के। “यह नारियल का पेड़ अभिलाष की उम्र का है। जिस साल उसका जन्म हुआ उसी साल ये लगाई थी। दोनो साथ बढ़े। इस पर बॉल मार पर बचपन में वह खेलता था।” “रातरानी का पेड़ अभिलाष ने ही लगाया था।” “छत पर लाइट्स की ऐसी सजावट अभिलाष की चॉइस थी। कहता था कभी मन करेगा तो रात को छत पर बैठ सकते हैं या बैडमिंटन खेल सकते हैं।…. पर आज तक कभी टाइम ही नही मिला यहां बैठने का।”
मैं सोचने लगा कितने खुशकिस्मत हैं दोनों बाप बेटे! योग्य बाप का योग्य बेटा एक सुखद संयोग ही होता हैं। अभिलाष! ए लकी बॉय बोर्न विथ सिल्वर स्पून।
“आपके हॉस्पिटल का क्या प्रोग्रेस है डॉ सरकार?” डॉ दास के इस प्रश्न से मेरी तंद्रा टूटी। “इट्स प्रोगेसिंग। इतने सारे फॉरमैलिटीज …” “पर हॉस्पिटल की जमीन है आपकी प्राइम लोकेशन पर … पटना-कोलकाता हाइवे पर। इजिली रिचेबल।” “पेशेंट बेस तो ऑलरेडी बना हुआ ही है। दोनों बड़े डॉक्टर तो घर से ही हो जाएंगे” “दो ही क्यों, बहू भी तो डॉक्टर ही होगी।”
मैं सबकी बातें चुपचाप सुन रहा था। पत्नी से बोला “एक हम हैं जो खुद कुआं खोदो और खुद पानी पियो। पापा ने पढ़ा दिया यही बहुत है। गाँव में एक खपरैल घर तक नहीं बना पाएँ। सारी ज़िम्मेदारी मेरे ऊपर ही है। अपनी-अपनी किस्मत होती है।” पत्नी मेरी तरफ देख कर चुप रही शायद समझ नहीं पा रही थी कि मेरा समर्थन करे या मुझे सांत्वना दे। मैं अपने मन की भड़ास निकालता रहा “मेहनत से आदमी एक अच्छी लाइफ जी सकता है पर एक लिमिट से अधिक नहीं जा सकता है जब तक कि कोई और उसके लिए मेहनत न करे। हम लोग डॉ सरकार के लिए मेहनत करते हैं और डॉ सरकार हॉस्पिटल के लिए।” पास ही खड़ा था डॉ सर्वेश। वह भी वही महसूस कर रहा था जो कि मैं। उसने मेरा समर्थन किया “ट्रू। कितना भी मेहनत कर लें, हमें तो एक फिक्स सैलरी ही मिलनी है। सीनियर कंसल्टेंट को सैलरी के साथ पर-ऑपरेशन पर्सेंटेज भी।”
डॉ अभिलाष सरकार ने देश के एक प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की डिग्री ली। इसके बाद एमएस की पढ़ाई करने ब्रिटेन चले गए। वहां उनका एमएस का कोर्स पूरा हो चुका था लेकिन भारत लौटने के बदले वहीं रह कर कुछ और कोर्स करने और वहीं कुछ वर्षो तक नौकरी करने का उनका विचार था। उनके इस विचार को पिता का समर्थन भी मिला। मां यह तो चाहती थी कि बेटा बहुत बड़ा डॉक्टर बने, अपने पिता से भी बड़ा उसका नाम हो। पर साथ ही वह यह भी चाहती थी कि सही उम्र पर वह अपना परिवार बना लें।
स्वयं डॉ विश्वरूप की शादी तो तभी हो गई थी जब वे एमबीबीएस दूसरे वर्ष में ही पढ़ रहे थे। उनके पिता के विचार में बच्चों की शादी माता पिता की नैतिक जिम्मेदारी होती है और माता पिता को ‘सही उम्र’ में बच्चों की शादी कर अपनी जिम्मेदारी से निवृत हो जाना चाहिए। लेकिन ‘सही उम्र’ क्या है, इस पर बाप और बेटे की राय अलग अलग थी। बाप के अनुसार जब बच्चे युवा हो जाय तो उनकी शादी हो जानी चाहिए। करियर जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है, यह चलती रहेगी। जबकि बेटे के अनुसार शादी तभी हो जब बच्चों का करियर संवर जाए, नहीं तो परिवार के झंझटों का करियर पर बुरा असर पड़ेगा। खैर, बाप बेटे के इस खींचतान में आखिरी में बाप की ही जीत हुई और बेटे को शादी करनी पड़ी।
पर बेटे (विश्वरूप) ने यह निश्चय किया कि वह अपना परिवार और नहीं बढ़ाएगा जब तक कि वह स्वयं बड़ा डॉक्टर बन न जाए और उसके पास इतनी संपत्ति एवं आय हो जाय कि वह अपने बच्चों को वह सब सुविधाएं दे सके जो उन्हे उनके पिता नहीं दे सके। उन्होंने यह विचार पत्नी को भी बता दिया। वह भी सहमत हो गई। यही कारण रहा कि शादी के लगभग 16 वर्ष बाद उनके बेटे अभिलाष का जन्म हुआ। बच्चे को पूरी सुविधा और समय दे सकें इसलिए फिर दूसरे बच्चे की नहीं सोचा।
आज पांच साल बाद फिर इस घर में आया हूं। सुबह जब हॉस्पिटल के लिए तैयार हो रहा था तभी एक दोस्त का कॉल आया कि डॉ विश्वजीत की पत्नी नहीं रहीं। नाइट शिफ्ट वाले डॉ अब घर जाने की तैयारी कर रहें थे। मैं उन्हें हॉस्पिटल में रुकने के लिए कह कर डॉ विश्वरूप सरकार के घर चला आया। लेकिन पाँच साल पहले जब इस घर में आया था वह माहौल अभी नहीं था। खुशी के बदले उदासी थी। पर उदासी घर में हुए अचानक मौत से कुछ अलग था। गार्डन में बड़े बड़े घास उगे हुए थे। बहुत से गमलों में मुरझाए हुए पौधे लगे थे। यहाँ तक कि घर के अंदर कहीं-कहीं मकड़ी के जाले भी लगे थे। लग रहा था अब उन सबकी प्यार से देखभाल करने वाला कोई नहीं हो।

धीरे-धीरे बहुत से लोग वहाँ पहुँच रहे थे। लेकिन सबके मन में एक ही सवाल था कि अंतिम क्रिया करना है या इकलौते बेटे अभिलाष के आने की प्रतीक्षा करनी है। डॉ विश्वरूप सरकार ने अंतिम क्रिया करने के लिए कहा।
तेरहवीं भी नहीं हुआ था कि डॉ सरकार को अपने चैंबर में बैठे देख कर मुझे थोड़ी हैरानी हुई। मैंने विनम्रता से कहा “सर! आई विल मैनेज। प्लीज टेक यूअर टाइम टु रिकवर फ्राम ग्रेट पर्सनल लॉस एंड मेनेज पर्सनल थिंग्स।” डॉ सरकार की टीम में अब उनके बाद मैं ही सबसे सीनियर था। इसलिए उनकी अनुपस्थिति में मुझ पर ही सारी ज़िम्मेदारी होती थी। डॉ सरकार ने शांत स्वर में कहा “आई नो यू विल। बट आई बिकेम हैबिच्युयल ऑफ दिज थिंग्स। ये हॉस्पिटल, पेशेंट, ऑपरेशन, बीमारी …. सारी जिंदगी यही तो किया अब इसके बिना मन नहीं लगता है।” मैं कुछ नहीं बोल पाया। सहानुभूति से कुछ देर उनके सामने की कुर्सी पर बिना कुछ बोले बैठ गया। उन्होने धीरे से कहा “वैसे भी अब घर में कौन है जिसके लिए जाऊँ!” मैंने बात बदलने के लिए पूछ लिया “डॉ अभिलाष कब तक आ रहे हैं?” डॉ सरकार ने केवल इतना कहा “मैंने उसे इन्फॉर्म नहीं किया है।”
उनकी हालत देख कर मुझे ज्यादा कुछ पूछना अच्छा नहीं लगा। ये तो सुना था डॉ अभिलाष ने ब्रिटेन में ही शादी कर ली थी। वे वहीं सेटल हो गए थे इसलिए बहुत दिनों से आए नहीं थे। पहले डॉ सरकार और उनकी पत्नी कभी-कभी दशहरा की छुट्टियों में चले जाते थे। बंगाल में ये सबसे बड़ा त्योहार होता है और लोग जरूरी काम भी इन दिनों रोके रखते हैं। इसलिए हॉस्पिटल में पेशेंट कम हो जाते थे क्योंकि केवल इमरजेंसी वाले केस ही आते थे। इस समय डॉ सरकार छुट्टी मनाने पत्नी के साथ बेटे के पास ब्रिटेन चले जाते थे। लेकिन पिछले 3-4 वर्षों से वह वहाँ नहीं गए थे।
“आजकल लव मैरेज तो कोई बहुत बड़ी बात नहीं रही। इंडिया में भी ऐसा होता है और माँ बाप उसे स्वीकार करते हैं। डॉ दास बेटे से बेकार में इतना गुस्सा हैं। एक ही तो बेटा है।” मैंने एक दिन सर्वेश से कहा। “ईगो प्रॉबलम, भाई। जो आज भी कई माँ-बाप में होता है।” सर्वेश ने ठंढ़ी सांस लेते हुए शांति से कहा। “बेटे का फ्रस्टेशन दूसरों पर उतारते रहते हैं। आजकल डॉ सरकार कितने चिड़चिड़े हो गए हैं।” हम दोनों की बात सुन रही नर्स देवजानी ने समर्थन किया।
देवजानी की बात सच थी। आजकल डॉ सरकार अक्सर किसी-न-किसी पर चीखते दिख जाते थे। सामने तो कोई कुछ नहीं कहता लेकिन पीठ पीछे सभी स्टाफ और डॉक्टर उनकी बुराइयाँ करते। उन्हें ‘सनकी बूढ़ा’ ‘फ्रस्टू टकलू’ जैसे नामों से पुकारते। लोग उनके साथ काम करने से बचना चाहते थे। कई लोग तो बेहतर अवसर मिलते ही दूसरा यूनिट या हॉस्पिटल जॉइन कर लेते थे। मैं भी यहाँ इसलिए रुका हुआ था कि इससे कोई बेहतर सैलरी वाला अवसर नहीं मिल पाया था।
दशहरा के दिन पेशेंट कम होने से जल्दी हॉस्पिटल से फ्री हो गया था। कोई बड़ा ऑपरेशन नहीं था इसलिए डॉ सरकार आज हॉस्पिटल नहीं आए थे। घर लौटते समय जब मैं उनके घर के सामने से गुजरा तो जाने क्यों मन में आया एक बार मिल लूँ। शायद अकेले होंगे। घंटी बजाई तो पहले कुत्ता के भौंकने की आवाज आई फिर उसे चुप कराते डॉ सरकार की। दरवाजा डॉ सरकार ने ही खोला। उन्हें ही दरवाजा खोलते देख कर मैं झेंप गया। सकपकाते हुए बोला “घर जा रहा तो …तो सोचा आपको दशहरे की शुभकामना देता चलूँ।….. सॉरी इफ आई डिस्टर्बड यू।” “नो नो …. नॉट ऐटऑल, कम।” मैं उनके पीछे-पीछे चलने लगा। “सभी छुट्टी पर गए हैं इसलिए घर में कोई नौकर नहीं है। कुक आई थी खाना बना कर जल्दी ही चली गई।”
घर अब भी उतना ही बड़ा था। सारे चीजें वैसी ही थी लेकिन वे सब उदास और फीकी नजर आ रही थी। घर के अंदर डॉ अभिलाष की फोटो अभी भी थी। सभी फोटो पुरानी, कोई नई फोटो नहीं। दरअसल मैं पत्नी के साथ उनकी फोटो देखना चाहता था। केवल एक फोटो बढ़ी थी डॉ सरकार की पत्नी की। बड़े से उस फोटो पर चन्दन का हार चढ़ा था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि बात कैसे शुरू करूँ। वैसे ही पूछ बैठा “अभिलाष हॉस्पिटल फंकशनल हो गया अब?” “हाँ हो गया है कुछ डिपार्टमेन्ट लेकिन न्यूरो डिपार्टमेन्ट अभी शुरू नहीं हुआ है।” कुछ रुक कर उन्होने ही बात बढ़ाया “आई एम लुकिंग फॉर इन्वैस्टर।” “इन्वेस्टर? क्यों आप खुद उसे रन नहीं करेंगे।” मैं थोड़ा विस्मित था। ये हॉस्पिटल तो उनका सपना था।
“मैं कब तक जिंदा रहूँगा? मेरे बाद कौन देखेगा इसको? इसलिए किसी इन्वेस्टर को सौंप देना चाहता हूँ ताकि अच्छे से चला सके।” “सर….. डॉ अभिलाष और उनकी पत्नी को अपना लीजिए…. वो दोनों तो खुश हैं न…. शादी तो की हैं उन्होने…” मैंने हिम्मत करके कहा।
डॉ सरकार एक फीकी हंसी के साथ कहा “ड्रिंक तो तुम करते नहीं, कोल्ड ड्रिंक पियोगे?” फिर मेरे जवाब का इंतजार किए बिना उठे और फ्रिज से निकाल कर एक बोतल ले आए। साथ कुछ चिप्स, प्लेट और गिलास भी लेते आए। साथ ही बोल भी रहे थे “मैं तो अपना लूँ लेकिन वह अपनाएं तब न। हम दोनों तो उसके रिश्ते के लिए तैयार थे। स्मिता… मेरी वाइफ़, तो सास बनने की खुशी में पागल ही हो गई थी। साड़ी, लंहगा और गहने पसंद कर रही थी। ……. लेकिन बेटे को यह सब पसंद नहीं था। उसके वाइफ़ मारग्रेट की माँ ब्रिटिश है और पिता केन्या का कोई बड़ा बिजनेसमैन। वह एक बड़ा हॉस्पिटल बनाना चाहता था। इसीलिए उसने अपनी बेटी को डॉक्टर बनाया। वह चाहता था कि मारग्रेट और अभिलाष दोनों केन्या में उसका हॉस्पिटल संभाले।”
डॉ सरकार ने चिप्स मेरे प्लेट में डालते हुए कहा। खाने पीने के मामले में बहुत सावधान डॉ सरकार को चिप्स खाते देखना थोड़ा अचंभित करने वाला था मेरे लिए। लेकिन मैं कुछ बोला नहीं। उन्होने अपनी बात जारी रखा “मारग्रेट अपने पिता का सपना पूरा करना चाहती थी।… अभिलाष भी…। शादी उनदोनों ने चर्च में किया। शादी में अपने माँ-बाप को बुलाना भी उसे जरूरी नहीं लगा। हाँ, शादी की खबर फोन कर हमे दे दिया। ……. साड़ी, गहने तो मारग्रेट पहनती नहीं…… क्या करेगी लेकर …… केन्या हॉस्पिटल को बड़ा बनाना… इसका चेन सारे अफ्रीका में खोलना उसका सपना है। ……… अभिलाष हॉस्पिटल उसके सपने में कहीं शामिल नहीं है। ……..एक महीने उसकी माँ बीमार रही। बार–बार फोन किया लेकिन उसे समय नहीं मिला। जब जिंदा में नहीं आया तब मरने के बाद आ कर क्या करता। इसलिए मरने के बाद मैंने उसे फोन नहीं किया। ……… उसकी दुनिया अब अलग है जिसमें हम लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। हमारी जगह अब इतनी ही है कि कभी-कभी फोन कर लेता है। लेकिन फोन पर क्या बात करूँ…. अब तो लगता है कि बात ही खत्म हो गई।”
आज मेरे सामने एक सफल डॉक्टर, एक सनकी बूढ़ा, एक बहुत धनी व्यक्ति और एक खुशकिस्मत बाप नहीं बल्कि एक ऐसा बूढ़ा बाप बैठा था जो एक दांव में ही सबकुछ हार गया था। जिसके सारे सपने, सारे गर्व एक झटके में छिन गया था। सारी दौलत अचानक से निरर्थक हो गई थी। मेरे पास शब्द नहीं थे। चुपचाप उन्हें देख रहा था। वे कह रहे थे जैसे बहुत कुछ टूट गया हो उनके भीतर और उस कचड़े को वह बाहर फेंकना चाहते हों “जैसे स्मिता एक दिन अपने कमरे में मरी पड़ी मिली, शायद कभी मैं भी किसी नौकर को मरा पड़ा मिलूँ…. या शायद हॉस्पिटल के किसी बेड पर सिसक कर मरूँ ……. यहीं के लोग तो मेरी अंतिम क्रिया भी करेंगे।”
मैं जब बाहर निकला तो बेमौसम की हल्की बारिश हो रही थी। मुझे अपना वजन पहले से ज्यादा लग रहा था जिसे मेरे पैसे संभाल नहीं पा रहे थे। गाड़ी में बैठते समय मैंने मुड़ कर देखा। ‘अभिलाष भवन’ बारिश में अपनी ‘खुशकिस्मती’ पर रोता हुआ लग रहा था।
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