‘काग दहि पर जान गंवायों।’

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एक पुरानी कहानी है। एक दिन एक कवि मिठाई की दुकान पर बैठा मिठाई खा रहा था। तभी कहीं से एक कौआ उड़ता हुआ आया और दही की हांडी में चोंच मार कर उड़ चला। दुकानदार को गुस्सा आ गया। उसने एक पत्थर कौआ पर दे मारा। संयोग से वह पत्थर कौआ के सिर पर लगा और वह वहीं मर गया। यह देख कर कवि का हृदय द्रवित हो गया। जब वह पानी पीने कुएं पर गया तो वहाँ उसने कोयले से एक दोहा लिख दिया ‘काग दहि पर जान गंवायों।’

कुछ देर बाद वहाँ एक ऐसा व्यक्ति आया जिसकी प्रेमिका ने उसे छोड़ दिया था। वह दुखी था कि जिसके लिए उसने इतना कुछ किया वह लड़की उसे छोड़ कर चली गई। उसकी नजर कुएं पर लिखी पंक्ति पर गई। उसने उसे पढ़ा ‘का गदही पर जान गंवायो।’ उसने सोचा सही लिखा है। क्यों वह एक ‘गदही’ यानि एक मूर्ख लड़की के लिए अपनी जान देने पर तुला है।

थोड़ी देर बाद उस कुएं पर एक अन्य व्यक्ति आया। वह लेखापाल अर्थात राजा का क्लर्क था। कागज (जिसे पहले कागद भी कहते थे) यानि दस्तावेजों में कुछ लापरवाही के कारण उसे राजा ने दंड दिया और नौकरी से निकाल दिया था। उसने भी वह पंक्ति पढ़ा। उसने ऐसे पढ़ा ‘कागद पर ही जान गंवायों।’ उसने सोचा कितना सही लिखा है। यह तो उसके लिए लिखा गया है, सच में कागद (कागज) के कारण ही तो वह मुसीबत में पड़ा था। 

व्याकरण की दृष्टि से भले ही यह कहानी शब्दों के बीच रिक्त स्थान और विस्मयादी बोधक चिह्नों के महत्त्व को दर्शाता है लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से देखें तो एक ही चीज को देखने के कितने ही दृष्टिकोण हो सकते हैं। व्यक्ति समान्यतः किसी अन्य व्यक्ति या परिस्थिति को अपनी मनःस्थिति के अनुरूप ही देखता समझता है। तुलसीदास के शब्दों में कहें तो ‘जा की रही भावना जैसी, प्रभु मूरत तिन्ह देखि तैसी।’ वास्तव में बाहर दिखने वाली दुनिया में हमें हमारे दुनिया यानि हमारी मनःस्थिति की प्रतिच्छया दिखती है।   

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इसलिए वसंत में किसी को नव जीवन और सृजन का राग दिखता है, तो किसी को प्रिय वियोग की आह। किसी को प्रेम की पुकार सुनाई देती है तो किसी को कोयल की तान। किसी को पता ही नहीं चलता कि कब वसंत कब आया और कब चला गया। महानगरों में वसंत तो अब ज़्यादातर गमलों में ही खिलता है। ठिठुरती ठंढ के बाद धूप में बढ़ते तपिश का आनंद ले सके इतना समय वातानुकूलित कमरे और ऑफिस में बैठे लोगों को कहाँ होता है।

फिर भी कुछ लोग गमलों और छतों पर, सड़क के किनारे खिले फूलों से वसंत के कुछ क्षणों की चुरा ही लेते हैं। वे ये भी जानते हैं कि ठिठुरन के बाद ही वसंत आई है। आगे भले ही झुलसाने वाली गर्मी हो लेकिन फिर भी अगले साल वसंत को आने से रोका नहीं जा सकता है।

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