कन्या पूजन और श्रवण कुमार के देश में वृद्धाश्रम!

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अनीता मिश्रा
दिल्ली

सच में यह परमावश्यक है। हम सभी को इस विषय पर चिन्तन करना जरूरी है कि जिस देश में श्रवण कुमार जैसे पुत्र हो, जिन्होंने अपने माता-पिता के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। जिस देश का आदर्श वाक्य है, “अभिवादनशीलस्य नित्य, वृद्वोपसेविन: चत्वारि तस्य वर्धयन्ते आयुवि॑द्या यशोबलम।”उस देश में वृद्धाश्रम की संख्या बढ़ती ही जा रही है।

हमें गहन चिन्तन की आवश्यकता है। जिस देश के कण-कण में ऋषिमुनियों के तप-त्याग की शक्ति समाहित है। जहाँ सत्कर्म की सदैव प्राथमिकता है। जहाँ की संस्कृति और संस्कार दुनिया के लिए उदाहरण है। जहाँ भगवान विष्णु ने स्वयं रामावतार लेकर मर्यादा सिखाया है। कृष्ण ने अपना अधिकार न्यायपूर्ण रूप से लेने के लिए आवाज उठाना सिखाया है।

जिस बुजुर्ग ने हमें लालन-पालन, शिक्षा से लेकर बारी-फूलवारी के साथ हँसता-खेलता आँगन दिया, आज उन्हीं को हम अनाथ आश्रम का रास्ता दिखा देते हैं। क्या यही हमारा आधुनिक विकसित संस्कार है! हमें बैठकर इस विषय पर गहन चिन्तन की आवश्यकता है। हमे तो लग रहा कि हम घोर स्वार्थी हो गए है। अपने आ‌राम और पैसों की होड़ में मशीन बनते जा रहे हैं। इसीलिए मशीन की तरह संवेदना विहीन होते जा रहे है। यदि हमारे माता-पिता भी स्वार्थी हो जाते और अपने बुढ़ापा के लिए सारी दौलत जमा करके रखते तो क्या हम पढ़ पाते? हमारा लालन-पालन सही ढंग से हो पाता?

जिस तरह कोशिका हमारे जीवन की मूलभूत इकाई होती है। कोशिकाओं के समूह से ऊतक बनता है और ऊतक से शरीर का सुन्दर ढांचा बनता है। ठीक उसी तरह एक स्वच्छ परिवार से एक स्वच्छ गाँव बनता है। स्वच्छ गाँव से स्वच्छ समाज और स्वच्छ समाज से स्वच्छ राष्ट्र। हम अपने माता-पिता के साथ जो व्यवहार करेंगे वो हमारे बच्चों के दिमाग में बैठ रहा है। निश्चय ही हमारी बारी आयेगी तब उनसे हमें भी यही मिलेगा। जिस फुलवारी और वृक्ष को हमारे बुजुर्ग ने खून-पसीना में सींचकर हरा-भरा किया, उस वृक्ष के नीचे उसे बैठकर विश्राम का भी अधिकार नही है। ये कहां का न्याय है।

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हम अपने बुजुर्ग को वृद्धाश्रम नहीं भेज रहे है, बल्कि अपने घर की सुख-शान्ति और उज्जवल भविष्य को वृद्धाश्रम में कैद कर रहे है। जिस तरह से वृक्ष का एक-एक भाग जीव कल्याण के लिए होता है। ठीक उसी तरह हमारे घर के बुजुर्ग की एक-एक अवस्था घर की शुभ्रता के लिए होती है। घर मे बड़े बुजुर्ग की छत्रछाया में परिवारिक अनुशासन बना रहता है। बच्चों के लिए तो बड़े बुजुर्गो का सानिध्य रामबाण की तरह काम करता है। दादी-दादा से रामायण-महाभारत की कथा संग प्रेरणादायक कहानियों से उनके आत्मबल में वृद्धि होती है। उनके धार्मिक आचरण और अपने लक्ष्य के प्रति दृढसंकल्प की भावना का समावेश होता है। जिसका परिणाम यह होता है कि जीवन के सफर में यही बच्चे बड़े से बड़े मुसीबतों के आंधी में भी मजबूती से खड़े रहते है। और अपने परिवार ओर समाज के लिए उदाहरण बन जाते है।

बड़े बुजुर्ग हमसे क्या लेते है। बुढ़ापा मे थोड़ा देखभाल के बदले अपने अनुभवों का खजाना हमें सौंप देते हैं। कभी-कभी लगता है कि बुजुर्गो के प्रति असंवेदनशीलता का कारण क्या हो सकता है, सुख-सुविधा का अभाव या दूरभि सन्धि? अभाव तो बिल्कुल नही हो सकता क्योंकि आधुनिक समय में सुविधा का अभाव तो कहीं नहीं है। गांव हो या शहर। हाँ दूरभिसंधि है क्योंकि फेसबुक, द्विटर या इस्टाग्राम पर हम ज्यादा समय देने लगे है। यही समय तो अपने पारिवारिक सदस्य के लिए होना चाहिए। यह सबके लिए लागू भी नहीं होता। आधुनिक चकाचौंध में बहुत से हम मे से ऐसे हैं कि टेक्नोलोजी का उचित प्रयोग करके परिवारिक महत्व को समझते हुए परिवार के बड़े- बुजुर्ग का बहुत ध्यान रखते हैं।

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बुजुर्ग क्या चाहते है? केवल सम्मान और स्नेह! उनकी एक ही इच्छा रहती है कि कोई उनकी भावना को समझे। आधुनिक समय में अधिकतर पति-पत्नी दोनों नौकरी करते है। उस घर में बजुर्ग पूरे दिन अपने पोते-पोतियों को सम्भालते है। खाना-पीना से लेकर पढ़ाई-लिखाई, खेल-कूद सबका ध्यान रखते है। पूरे दिन सो नहीं पाते है तब भी चेहरा पर मुस्कान रहता है क्योंकि उन्हें मन में संतोष होता है कि हम अपनों के साथ है। पोते-पोती के बचपने में अपने बेटे-बेटियों के बचपन को भी जीने लगते हैं। अपने बेटे-बहुओं को भरपूर सहयोग करते हैं। हमें उनकी भावनाओं को सम‌झना चाहिए। उनके शब्दों को तराजू पर नही तोलना चाहिए!

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