एक पाँच साल का बच्चा अपने नए फुटबॉल लेकर बड़े उत्साह से दौड़ता हुआ अपनी माँ के पास गया। व्हीलचेयर पर बैठी माँ के पैरों से लाड़ से लिपट कर बोला “अम्मी! अम्मी! तुम इसे फेंको।” माँ को अपने पैर नहीं होने का जैसा शिद्दत से एहसास इस समय हुआ, वैसा शायद पहले कभी नहीं हुआ था। अपनी लाचारी और अपने मासूम बच्चे का उत्साह के दो किनारों के बीच फंसी हुई माँ जैसे प्रतिक्रिया शून्य हो गई।
लेकिन अगले ही पल उस नादान-से दिखने वाले बच्चे को जैसे यह सारी स्थिति समझ में आ गई। उसने बड़े ही सहज भाव से कहा “पैर नहीं है तो क्या हुआ हाथ से फेंको न फुटबॉल।” उसके उत्साह में कोई कमी नहीं आई थी। उसके इस एक वाक्य ने जैसे उसकी माँ को अपने अपूर्णता के भाव से निकाल दिया।
यह माँ है पाकिस्तान की मशहूर दिव्याङ्ग चित्रकार मुनिबा मजारी (Muniba Mazari)। शादी के केवल दो साल बाद एक घातक कार दुर्घटना में अपने शरीर के कई महत्वपूर्ण हिस्से को गँवाने के कारण वह माँ बनने के लिए भी सक्षम नहीं रही। पति ने दूसरी शादी कर ली।
इस अकेलापन और दर्द में उसे माँ के इस वाक्य से संबल मिला कि “भगवान ने तुम्हारे लिए कोई दूसरा बड़ा काम सोच रखा होगा।” अपने दर्द को उसने रंगों के साथ बाँटना शुरू किया। शीघ्र ही वह देश के सबसे बड़े चित्रकारों में शामिल हो गई। माँ नहीं बन सकती थी, तो एक अनाथ बच्चे को गोद लेकर अपनी ममता दी। शारीरिक रूप से, एक स्त्री के रूप में अपूर्ण, एक व्यक्ति के रूप में अपूर्ण, पर मानसिक रूप से ऐसी “संपूर्ण” बनी कि वह लाखों लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत बन गई। जिसे लोग उसकी अपूर्णता मानते हैं उसी ने वास्तविक अर्थों में उसके सृजन की शक्ति को प्रकट कर उसे संपूर्ण बनाया।
एक बहुत सुंदर और प्रसिद्ध पुरानी कहानी है। एक किसान की लड़की प्रतिदिन दो घड़ों को अपने कंधों पर रख कर पानी लाने जाती थी। एक दिन उसने देखा कि एक घड़ा थोड़ा-सा टूटा है। इस कारण उससे पानी निकलता रहता था और घर पहुँचने तक बहुत थोड़ा पानी ही उसमे बच जाता था। उस लड़की ने रास्ते में फूलों के बीज बो दिए। पानी लेकर आते समय वह टूटे हुए घड़े को उस तरफ रखती थी, जिधर बीज पड़े थे। एक समय आया जब जिधर टूटा हुआ घड़ा था, उधर का पूरा रास्ता रंग-बिरंगे फूलों से सज गया। लेकिन जिधर बिना टूटा हुआ घड़ा था, उधर वीरान ही रहा।
वह टूटा घड़ा ही संपूर्ण था, अगर उसकी “अपूर्णता” का “संपूर्ण” प्रयोग किया गया। अगर ग्रीष्म और शीत ऋतु न आती तो वसंत का क्या आनंद था, अगर रात न होती तो सुबह कैसे सुहानी होती, अगर अंधकार न होता तो प्रकाश को कौन ढूँढता।
अगर हम अपूर्ण है, अगर हमे प्रकृति ने कुछ कमी दी है, तो यह संकेत है कि वह हमे हमारे संपूर्णता को पहचानने का अवसर दे रही है।
वृद्धावस्था एक ऐसी ही अवस्था होती है जब हम शारीरिक रूप से दुर्बल या अपूर्ण हो सकते हैं लेकिन अनुभव इस कमी को सम्पूर्ण कर सकता है, अगर हम चाहे तो।