अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस: विकास और महत्त्व

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प्रतिवर्ष 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। 2022 के लिए इस दिन का थीम रखा गया है Break The Bias यानि पक्षपात तोड़ो। स्पष्टतः इसका तात्पर्य एक ऐसी दुनिया बनाने से है जो तर्कहीन लैंगिक पक्षपात से मुक्त हो। यह दिन किसी देश, समुदाय या संगठन के लिए नहीं बल्कि इन सब से निरपेक्ष दुनिया भर की महिलाओं के लिए समर्पित होता है।  

      वर्तमान में यद्यपि अलग-अलग देश और संस्थाएँ अपने-अपने तरीके से अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाते हैं। कई देशों ने इस दिन राष्ट्रीय अवकाश घोषित कर रखा है। लेकिन तारीख (8 मार्च) और थीम सबका एक ही होता है। 1977 से प्रत्येक वर्ष अलग-अलग थीम से इस दिवस को मनाने की परंपरा का आरंभ हुआ।   

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के उद्देश्य

      अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का उद्देश्य है जीवन के विभिन्न पक्षों में दुनियाभर की महिलाओं की उपलब्धियाँ और उनके योगदान को सम्मान देना। साथ ही महिला अधिकारों और लैंगिक समानता के लिए किए जाने वाले प्रयासों और आंदोलनों के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ाना। महिलाओं के विरुद्ध हिंसा और भेदभाव रोकने और प्रजनन संबंधी उनके अधिकारों इत्यादि अनेक अन्य विषय पर जागरूकता फैलाने और सामूहिक प्रयास करने की जरुरत पर बल देने का भी यह दिन है।

      दिसंबर, 1977 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने अंतर्राष्ट्रीय महिल दिवस के लिए प्रस्ताव घोषित करते हुए कहा था “महिला अधिकार और अंतर्राष्ट्रीय शांति के लिए सदस्य राष्ट्र अपने-अपने ऐतिहासिक और राष्ट्रीय परंपरा के अनुरूप महिला दिवस घोषित करें। “महिला अधिकार और अंतर्राष्ट्रीय शांति” शब्द से स्पष्ट है कि महिला अधिकार केवल महिलाओं की समस्या तक ही सीमित नहीं है, बल्कि देश और समाज में उनके स्थान और उनके योगदान से भी जुड़ा हुआ है।  

      यद्यपि अब समय बदला है, महिलाओं के अधिकारों को सम्मान और स्वीकृति मिलने लगा है। फिर भी, महिलाओं का एक बड़ा वर्ग अभी भी इससे वंचित है और पुरुषों का एक बड़ा वर्ग समानता को पूर्णतः स्वीकार नहीं कर पाया है।

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का उद्भव और विकास

प्रथम चरण

      19वीं शताब्दी में महिलाओं में उनके अधिकारों के लिए जागरूकता लाने के लिए कई आंदोलन शुरू हुए। बीसवीं शताब्दी के शुरू में महिलाओं को भी पुरुषों की तरह ही मतदान का अधिकार दिलाने के लिए न्यूजीलैंड में भी आंदोलन शुरू हुआ। इसी आंदोलन से अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की नींव पड़ी। हुआ यह कि महिला अधिकार को लेकर दुनिया के अलग-अलग देशों में अलग-अलग कई तरह के प्रयास हो रहे थे। उदाहरण के लिए, उत्तरी अमेरिका और यूरोप में मजदूरी करने वाली महिलाओं के लिए कुछ विशेष सुविधाओं की माँग (जैसे, बच्चों को दूध पिलाने के लिए कुछ समय का अवकाश, मातृत्व के समय छुट्टी आदि) के लिए भी आंदोलन चल रहे थे।

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      इन्हीं आंदोलनों के क्रम में सोशलिस्ट पार्टी ऑफ अमेरिका ने 28 फरवरी, 1909 को “अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस” मनाने का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव के लिए सिफारिश एक महिला सामाजिक कार्यकर्ता थेरेसा माल्किल (Theresa Malkiel) ने किया था। अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी को अधिक समर्थन नहीं था। इसलिए इस प्रस्ताव पर अधिक विचार नहीं हो सका। लेकिन अगले साल यानि  1910 “इंटरनेशनल सोशलिस्ट वुमन’स कॉन्फ्रेंस में जब जर्मन प्रतिनिधिमंडल ने यह प्रस्ताव सुना तो उसे यह बहुत पसंद आया। जर्मन प्रतिनिधिमंडल के प्रयास से यह तय हुआ कि प्रतिवर्ष “महिलाओं को समर्पित एक विशेष दिन” मनाया जाए। इसे “अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (International Woman’s Day”) नाम दिया गया।

      अगले वर्ष यानि 1911 में पहला अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। इस साल इसे अधिकांश यूरोपीय देशों में मनाया गया। लेकिन इसके लिए कोई दिन या तारीख निश्चित नहीं किया गया था।

      1917 तक यह विभिन्न तारीख को और विभिन्न देशों द्वारा अलग-अलग मनाया जाता रहा। लेकिन जब 1917 में सोवियत संघ में महिलाओं को भी पुरुषों की तरह ही मतदान का अधिकार मिला, तब से एक तारीख इसके लिए निश्चित हो गई- 8 मार्च। इस दिन राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया गया।

द्वितीय चरण

      पर 1960 के दशक तक 8 मार्च को राष्ट्रीय अवकाश घोषित कर एक बड़े स्तर पर मनाने का प्रयास सामान्यतः साम्यवादी देशों तक ही सीमित रहा। 60 के दशक में महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार दिलाने के लिए कई सामाजिक, राजनैतिक आदि आंदोलन हुए। जिनकी मुख्य माँगे थीं स्वतंत्रता, प्रजनन संबंधी अधिकार, घरेलू हिंसा से सुरक्षा, यौन हिंसा से सुरक्षा, मातृत्व अवकाश (प्रसव के समय और उसके कुछ बाद तक बच्चे की देखभाल के लिए छुट्टी), पुरुषों के समान काम के लिए समान मजदूरी, मताधिकार इत्यादि। इन आंदोलनों को सामूहिक रूप से महिला आंदोलन कहा जाता है। इन महिला आंदोलनों ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को अपने कार्यक्रमों में स्थान देना शुरू किया। इसके साथ ही यह साम्यवादी देशों की सीमा से निकल कर अन्य देशों में फैला। इस तरह अंतराष्ट्रीय महिला दिवस मुख्य धारा का विषय हो गया। 

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तृतीय चरण

      वर्ष 1975 को संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष घोषित किया गया था। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का तीसरा चरण इसी वर्ष शुरू हुआ जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसे अपना लिया। 1977 में संयुक्त राष्ट्रसंघ महासभा (United Nations General Assembly) ने सदस्य देशों से 8 मार्च को “अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस” मनाने का आह्वान किया। साथ ही प्रत्येक वर्ष इस दिन के लिए एक विशेष थीम घोषित करने की परंपरा भी शुरू किया।

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का महत्त्व

      इसके उद्भव और विकास से स्पष्ट है कि अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस महिला अधिकार आंदोलनों के साथ-साथ चलता रहा और समय के साथ-साथ बदलता रहा। महिलाओं ने न केवल अपने अधिकारों के लिए, बल्कि देश और समाज के बेहतरी के लिए भी कठिन प्रयास किए जो इस दिन से जुड़े हुए हैं और इसे अधिक गौरवपूर्ण बनाते हैं। वह भले ही रूस का “ब्रेड एंड पीस” आंदोलन हो, या रूस की क्रांति (दोनों 1917), स्पेन के गृह युद्ध (1936) की पूर्व संध्या पर महिलाओं का विशाल मार्च हो, या फिर मजदूर आंदोलनों में इसकी भूमिका, इन सभी ने दिखाया कि महिलाओं की उन्नति और राष्ट्र की उन्नति कोई अलग नहीं बल्कि साथ-साथ चलने वाली प्रक्रिया है।

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का विरोध और विवाद

      कई बार महिला अधिकार आंदोलनों और अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर किए जाने वाले प्रदर्शन इत्यादि को प्रशासन और पुरुषों के समूह द्वारा विरोध भी झेलना पड़ा। उदाहरण के लिए इसके सौ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में 2011 में मिश्र के तहरीर स्क्वायर पर महिलाओं के प्रदर्शन पर पुरुषों के समूह ने हिंसक हमला किया। पुलिस और सैन्य बल देखते रहें पर उपद्रवी पुरुषों को रोकने के लिए कोई प्रयास नहीं किया। कट्टरपंथी सरकार बनने के बाद ईरान में भी ऐसे दृश्य दिखे थे। प्रारंभ में साम्यवाद से जुड़ा मान कर पूंजीवादी देशों ने भी इसे समर्थन नहीं दिया। इस तरह, पुरुषवादी सोच के साथ-साथ राजनैतिक विचारधारा के कारण भी इसे अवरोधों का सामना करना पड़ा।

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      विरोध का एक अन्य कारण महिलावादी विचारधारा की तरफ से भी है। यह कारण है रंग। महिला दिवस के लिए तीन विशेष रंगों को भी चुना गया है। ये रंग हैं- बैंगनी, हरा और सफ़ेद। बैंगनी रंग न्याय और गरिमा का, हरा रंग उम्मीद का और सफ़ेद रंग पवित्रता का प्रतीक माना जाता है। पर सफ़ेद रंग के इसमें प्रयोग के लिए यदाकदा विवाद भी होता रहा है क्योंकि इसे वैवाहिक पवित्रता से जोड़ा जाता है। अनेक महिलावादी विचारक यौन शुचिता को महिलाओं को बेड़ियों में जकड़ने का बहाना मानते/मानती हैं। इसे यह रंगात्मक प्रतीक ब्रिटेन में 1908 में “वुमेन’स सोशल एंड पॉलिटिकल यूनियन (WSPU) ने दिया। लेकिन रंगों को व्यवहार में अधिक महत्त्व नहीं दिए जाने के कारण यह विवाद अधिक उग्र नहीं हुआ।    

      कुछ दुखद उदाहरणों को छोड़ दें तो पुरुषों के एक बहुत बड़े वर्ग ने महिला आन्दोलनों का समर्थन किया, उन्हें उनके उचित अधिकार दिलाने के लिए अथक परिश्रम किया और यह सिद्ध किया कि महिला आंदोलन केवल महिलाओं का आंदोलन नहीं है।

      यह सही है कि एक दिन, एक सप्ताह, एक पखवाड़ा, एक महिना या एक वर्ष- मनाने से महिलाओं की स्थिति में कोई बहुत परिवर्तन नहीं आ सकता है। लेकिन यह भी सही है कि इसी बहाने कई तरह के विचार-विमर्श, आँकड़ों का संचयन, कार्यक्रम इत्यादि होते हैं, जो परिवार, समाज और देश के प्रति महिलाओं के योगदान को सम्मान देने की जरूरत के प्रति हमारा ध्यान खींचते है।  

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