भारत सांस्कृतिक रूप से एक समृद्ध देश रहा है। ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’, ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ व ‘अतिथि देवो भव’ इसका मूल स्वभाव मंत्र रहा है। दादी-नानी द्वारा बच्चों को उनके बचपन में ‘मिल-बाँट खाय, राजा घर जाय’ सिखाने की परंपरा रही है। यह वही देश है जहाँ श्रवण कुमार अपने बूढ़े व अंधे माता-पिता को बहँगी में बैठाकर तीर्थ यात्रा कराने निकल पड़े थे। यहाँ खुद के भोजन से पहले गौ माता के लिये रोटी अलग कर देने की समृद्ध परंपरा रही है। यहाँ कुत्ते और कौवों को भी भोजन देने का विधान रहा है।

चोरौत, सीतामढ़ी, बिहार
जिस देश में देर रात घर आये मेहमानों को पड़ोस के घरों से भी पकी हुई सब्जियाँ माँगकर खिलाकर सुलाने का रिवाज रहा हो, वहाँ वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या पीछे मुड़कर देखने व सोचने के लिये विवश करता है। क्या यह स्थिति अचानक उत्पन्न हुई है? इसके लिये कौन सी परिस्थितियाँ जिम्मेवार है? क्या अब दुबारा कभी यह स्थिति सामान्य हो पायेगी? इस तरह के न जाने कितने ही प्रश्न एक-एक करके जेहन में उठने शुरू हो जाते हैं।
विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों के अवसर पर यहाँ कन्या पूजन का भी विधान है जो आज भी प्रचलन में है। कन्या पूजन मातृ शक्ति का प्रतीक है। इस प्रथा की जड़े बहुत गहरी है। इस्लामिक आक्रमण से पूर्व तक इस देश में महिलाएँ समाज के मुख्य धारा की अभिन्न हिस्सा थी। उन्हें प्राचीन काल में भी इतनी स्वतंत्रता थी कि वह स्वयंवर के माध्यम से अपना वर खुद चुनती थी। कुछ समय हस्तिनापुर के शासन की बागडोर महारानी सत्यवती के हाथों में भी थी जब राज परिवार अपने किसी वंशज को उत्तराधिकारी नियुक्त करने की स्थिति में नहीं था क्योंकि हस्तिनापुर के पास कोई राजकुमार नहीं था। यह उस समय नारी सशक्तिकरण का बेजोड़ उदाहरण है। मिथिला में विदूषी भारती द्वारा आदि शंकराचार्य को शास्त्रार्थ में पराजित करना प्राचीन काल में नारी शिक्षा का अद्वितीय उदाहरण है।
अब सवाल उठता है कि इन सब उदाहरणों का वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या से क्या लेना-देना है? तो मेरा ऐसा मानना है कि जिस तरह कहावत है कि एक शिक्षित नारी न सिर्फ खुद को, अपने बच्चों को बल्कि अपने मायके से लेकर ससुराल तक को आबाद करती है। जीवन में हर रिश्ते को एक सूत्र में पिरोकर रखने में नारियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जिम्मेवारी, कर्तव्य पालन, सेवा, लोक-लाज की भावना से ओत-प्रोत होने के कारण घर के बच्चों से लेकर, पति, बुजुर्गों, पड़ोसियों, समाज व प्रकृति तक की जिम्मेवारी को निर्वहन करने में नारियों ने अग्रणी भूमिका निभाई है।
बच्चों को उनके दादा-दादी या नाना-नानी के साथ घुलाने-मिलाने में नारियों की अच्छी भूमिका रही है। जब बच्चे बुजुर्गों के साथ खुद को जोड़ते हैं तब उनके मन में बुजुर्गों के प्रति स्नेह पैदा होता है जो बाद में समुचित देखभाल और फिर बड़े होकर सेवा भावना के रूप में उभरकर सामने आता है।
बिना किसी मजबूत कहानी के बकवास टी.वी. धारावाहिकों ने आज उन्हीं नारियों के दिल-दिमाग पर आधुनिकता की ऐसी रंगीन परत चढ़ा दी है जिसके बाद उन्हें हर सही बात गलत और गलत बात सही लगता है। कल तक माँ-बाप को समय नहीं देने पर वही महिलाएँ लोक-लाज का हवाला देकर समय-समय पर अपने पतियों को उसकी जिम्मेवारी का अहसास दिलाती थी और समय-समय पर अपने बूढ़े सास-ससुर की लगभग हर छोटी-मोटी जरूरतों को अपने पति के माध्यम से पूरा करवाने का भरसक प्रयास करती थी। आज वही महिलाएँ अपने पति द्वारा बूढ़े माँ-बाप का ध्यान रखने पर दिन-रात ताने मारती है और सास-ससुर को छोड़ मायके में बैठे अपने माँ-बाप के जरूरतों को पूरा करवाने की जिद पर उतर जाती है। गृह शांति की लालसा में बेचारा पति अपनी पत्नी की हर उस जिद को पूरा करने के लिए मजबूर हो जाता है जिसे पूरा करने की जिम्मेवारी उसके शाले की होती है। असली गड़बड़ यहीं से शुरू होता है।

अब तो शादी से पहले बेटी वाले यहाँ तक पता करने लगे हैं कि लड़का के सिर पर माँ-बाप का बोझ तो नहीं है न! मतलब यदि लड़का शादी के बाद माँ-बाप से दूर अपनी नई-नवेली पत्नी को लेकर रहे तो यह उसके सुखी दाम्पत्य जीवन की निशानी होगी।
एकल परिवार की सोच इसी कुचक्र का दुष्परिणाम है। जिसके बाद वहाँ पैदा होने वाले बच्चों के साथ खेलने वाले, बातें करने वाले, उन्हें नैतिक शिक्षा की कहानियाँ सुनाने वाले, सही-गलत समझाने वाले दादा-दादी के नहीं होने से कहीं न कहीं उन बच्चों के परवरिश में कुछ कमी रह जाती है जो उनके अंदर भारतीय संस्कार नहीं पनपने देते क्योंकि उनका बचपन मोबाइल और टी.वी. की बनावटी दुनियाँ के बीच बीता है।
ऐसे ही बच्चे बड़े होकर लाखों के कुत्ते पालकर उन्हें टहलाने, उन्हें दूध पिलाने, गाड़ियों में घूमाने, यहाँ तक कि उन्हें चूमने तक को अपने बड़े होने का प्रतीक मान कर समाज में झूठी शान बघारते हैं। पशु प्रेम होना बुरा नहीं है लेकिन यह भयावह तब हो रहा है जब उन्हीं युवाओं को अपने माता-पिता या बूढ़े दादा-दादी से बात करने तक का समय नहीं है।
अपने बच्चों के सपनों को पंख लगाने की खातिर जब एक माँ-बाप अपने हर खुशियों को तिलांजलि देता है तब उन माँ-बाप के आँखों में मात्र एक ही सपना होता है कि उसके औलाद उसके बुढ़ापे का सहारा होंगे। लेकिन आधुनिकता, दिखावे, मजबूरी व पत्नी की जिद की आड़ में गृह शांति के लिए जब वही औलाद उन बेचारों के किसी भी तरह की देखभाल करने के बजाय उन्हें वृद्धाश्रम के चौखट पर छोड़ आता है तब मानवता ही नहीं भारतीय संस्कृति शर्मसार हो रही है।
इसलिए जरूरत इस बात की है कि सभी अपने-अपने हिस्से की जिम्मेवारी को समझें व अपने-अपने पक्ष के बुजुर्गों की देखभाल लगन से करें। तभी वर्तमान समाज से अभिशापित कोढ़ ‘वृद्धाश्रम’ को समाप्त कर एक बार फिर से बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद लिया जा सकता है तथा स्वस्थ व पोषित एवं खुशहाल समाज की स्थापना की जा सकती है।
****