अनुशासन

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छोटा-सा शब्द है अनुशासन। लेकिन इंसान के जीवन में इसके मायने बहुत बड़े हैं। वैसे तो अनुशासन के कुछ प्रमुख रुप हैं जो की किताबों में वर्णित है और धर्म शास्त्र में भी जिनका उल्लेख है। महाभारत का एक अध्याय ही ‘अनुशासन पर्व’ के नाम से है। जिसमें भीष्म पितामह युधिष्ठिर को धर्म-कर्म के विषय में बताते हैं।

विमल जी मिश्र, दिल्ली

किताबों में अनुशासन को मुख्य रूप से चार तरह से बताया गया है- १. प्राकृतिक अनुशासन, २. आधिकारिक अनुशासन, ३. व्यक्तिक अनुशासन, और ४. सामाजिक अनुशासन।   

      अनुशासन का अर्थ होता है शासन का अनुसरण करना। शासन से मतलब है जो नियम मानव के लिए समाज द्वारा या विधान द्वारा संचालित है अथवा धर्म शास्त्र में उल्लेखित है। हम सब सुनते आये हैं कि अनुशासन व्यक्ति को महान बनाता है। अनुशासन से देश महान बनता है। ऐसे अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं। पर, बहुत कम लोग हैं जो जीवन के सबसे महत्वपूर्ण रुप– अनुशासन को अपने जीवन में ढ़ाल कर चलते हैं। आज देश और समाज की स्थिति में जो विकृति आई है इसमें सबसे बड़ा घटक अनुशासन का है।

      हमलोग ग़ौर करके देखें-समझें तो पता चलता है कि समस्त सृष्टि अनुशासन में संचालित है। सूर्य का अनुशासन है पूर्व में उदित होना और पश्चिम में अस्त होना। सागर का काम है सारे नदियों को अपने में समा लेना। धरती का काम है चराचर जगत में जितने भी जीव-जन्तु हैं, पेड़-पौधे हैं, सभी को धैर्यपूर्वक धारण किए हुए अविचलित रहना। वैसे ही वायू और अग्नि के अपने काम हैं।  

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      जानते सभी हैं लेकिन ग़ौर नहीं करते हैं। सोचिए, अगर प्रकृति अनुशासन में थोड़ा-सा भी कमी कर दे तो इंसान का जीना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन हम मनुष्य, जिसे कि अनुशासन के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाना चाहिए, वो मनुष्य अनुशासन को कुछ समझता ही नहीं है। एक माँ अगर गर्भ धारण से, बच्चे के परवरिश तक अनुशासन भंग कर दे तो जीवन ही तहस-नहस हो जाएगा। हम अगर खान-पान में ज्यादती करते हैं तो उदर इसे अस्वीकार करते हुए कष्ट देता है।

      आज दुनिया भर के लोग परेशान हैं उसका जड़ ही अनुशासनहीनता है। छोटे-छोटे बच्चे अपने माता-पिता की बातों को अनसुना करते हैं। इसका  परिणाम होता है कि ज्यों-ज्यों बच्चा बड़ा होता है

वो अनुशासन से दूर होते चला जाता है। नतीजा बच्चा स्वार्थी हो जाता है अपने जीवन को समाजिक ताने-बाने से दूर, अलग तरीके-से ढ़ालने लगता है। इसका परिणाम होता है कि बच्चे माता-पिता के बिना दुखी रहते हैं, और माता-पिता बच्चे के बिना।

      हमारी सामाजिक व्यवस्था में अनुशासन का महत्व बताया गया है कि बड़े को बच्चे के साथ और बच्चे को बड़ों के साथ कैसे रहना चाहिए, कैसा व्यवहार करना चाहिए। सड़क पर चलते हुए लोग अगर अनुशासन में नहीं चलेंगे तो, क़दम-क़दम पर खतरा होगा। अगर लोग अनुशासनपूर्वक काम करना छोड़ दें तो, सारा उद्योग व्यवस्था बर्बाद हो जाएगा। उसी तरह अगर मनुष्य नैतिक मूल्यों को छोड़कर अनुशासनहीन हो जाएगा तो सृष्टि में तबाही होना निश्चित है।

      आजकल जो छेड़-छाड़, मार-काट, बेईमानी इत्यादि का प्रचलन बढ़ा है, उसका मूल कारण ही अनुशासनहीनता है। अगर मनुष्य अपने जीवन में सिर्फ अनुशासन धारण कर लें तो कभी किसी को कहीं पर ना ही ग़रीबी के कारण बिलखते हुए लोग दिखाई देंगे और ना ही अनाथालयों में बुजुर्ग और लाचार लोगों की भीड़ दिखाई देगी। क्योंकि जब मनुष्य अनुशासन में रहेगा तो उसे दूसरों के कष्टों का एहसास होगा, जिससे किसी बुरी परिस्थिति के पनपने से पहले ही उसका समाधान हो जाएगा। 

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      समाज को चाहिए कि बच्चों को नैतिक शिक्षा का महत्व समझाए, अनुशासन के विषय में बच्चों को जागरूक करें। अनुशासन ही मानव को सामान्य मानव से महान् बनाता है और समाज में शांति प्रदान कर सकता है। खान-पान, रहन-सहन, आचार-व्यवहार, बोली-वाणी, चलने-फिरने इत्यादि क्रियाकलापों में यदि मनुष्य अनुशासन मात्र को अपना ले, तो मानव का जीवन धन्य हो जाएगा। मनुष्य के जीवन का संरचनात्मक मूल ही अनुशासन है। इसलिए सभी अपने जीवन में अनुशासन को अपनाएं और ज़िन्दगी को स्वर्णिम बनाएं।

      अनुशासनहीन मनुष्य पशु बन जाते हैं। अनुशासित लोग धरती पर भी देवतुल्य कहलाते हैं। अनुशासन मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ आभूषण है। 

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